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सुरेश चन्द्र मिश्र 'विमुक्त' आयुर्वेद आत्मसात करने की अनवरत अनन्त अटलआवश्यकता भाग-1

 कानपुर: 26 मार्च 2025
सुरेश चन्द्र मिश्र 'विमुक्त'
20 मार्च 2025, लखनऊ श्री सुरेश चन्द्र मिश्र वरिष्ठ शिक्षाविद ने अपने जीवन के संघर्षों व अनुभवो को लेखो के माध्यम से प्रस्तुत करते आ रहे है । इस आयुर्वेद आत्मसात करने की अनवरत अनन्त अटलआवश्यकता में उपस्थित प्रत्येक वाक्य हमें जीने की प्रेरणा देता है। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि भी उल्लेखनीय है; उनके दो बेटे उच्च न्यायालय में अधिवक्ता हैं, जबकि उनकी बेटी ने संस्कृत में पीएचडी की है और सरकारी सेवा में कार्यरत हैं। हाल ही में, उनकी धर्मपत्नी का निधन हुआ है।
श्री मिश्र लेखन में अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित करते हैं और प्रतिदिन एक नया अध्याय लिखने का प्रयास करते हैं। यह लेख पाठकों को भी आत्मसमर्पण और संवेदनशीलता की ओर प्रेरित करते हैं। उनके व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित लेख जीवन की कठिनाइयों का सामना करने की प्रेरणा है।
यह "आयुर्वेद आत्मसात करने की अनवरत अनन्त अटलआवश्यकता" सिर्फ एक लेख नहीं है, बल्कि यह जीवन जीने का एक मार्गदर्शन है, जो शिक्षा स्वास्थ व चिकित्सा और आत्म-समर्पण के मूल्यों पर आधारित है।
वह लेखन मे अपनी दिनचर्या प्रतिदिन योजित कर एक नया अध्याय अधियाचित और आत्त्मार्पित करने का अध्यादेश अर्पित करते है ।



लखनऊ 20 मार्च 2025
ओम श्री गणेशाय नमः आयुर्वेद

आयुर्वेद अथर्ववेद का महत्वपूर्ण हिस्सा है। वेदों का ज्ञान समग्रता में मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझने और समाधान प्रदान करने के लिए समर्पित है। वेद की परंपरा में आयुर्वेद, स्वास्थ्य और चिकित्सा का विज्ञान है, जो न केवल चिकित्सा प्रणाली के रूप में कार्य करता है, बल्कि इस में जीवन को स्वस्थ और संतुलित करने की विधियाँ भी शामिल हैं.
चार वेद हैं:ऋग्वेद - मुख्यतः मंत्रों का संग्रह, जो यज्ञों और धार्मिक अनुष्ठानों में प्रयोग होता है।
यजुर्वेद - गद्यात्मक मंत्रों का संकलन, जो यज्ञ क्रियाओं और विधियों का विवरण करता है।
सामवेद - गायन के लिए उपयुक्त मंत्रों का संग्रह, जिसमें संगीत और गायन की विशेषता है।
अथर्ववेद - जो आयुर्वेद, जड़ी-बूटियों, तंत्र- मंत्र और विभिन्न प्रकार के उपचारों का ज्ञान प्रदान करता है.
इन वेदों में प्राचीन भारतीय संस्कृति के सांस्कृतिक, सामाजिक, और धार्मिक पहलुओं का संयोजन है। आयुर्वेद का ज्ञान, विशिष्ट रूप से, जीवन शैली, स्वास्थ्य, और प्राकृतिक चिकित्सा पर केंद्रित है, और इसे एक व्यापक दार्शनिक प्रणाली के रूप में देखा जाता है, जो मानव जीवन की हर समस्या के समाधान में मदद करता है.इस प्रकार, आयुर्वेद न केवल चिकित्सा विज्ञान है, बल्कि यह एक ऐसा दर्शन भी है जो जीवन के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों को समझता और समाहित करता है, और यही इसे अतिविशिष्ट बनाता है।
आयुर्वेद प्राचीन भारतीय चिकित्सा प्रणाली है, जो मुख्य रूप से जीवन की कला और विज्ञान के रूप में होती है। इसका नाम संस्कृत के "आयु" (जीवन) और "वेद" (ज्ञान या विज्ञान) से आया है। यह जीवन के सभी पहलुओं जैसे शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को समग्र रूप से संबोधित करता है। आयुर्वेद का उद्देश्य न केवल रोगों का उपचार करना है, बल्कि जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए स्वास्थ्य को बनाए रखना भी है1.
इतिहास और विकास
आयुर्वेद का इतिहास  लगभग पांच हजार साल पुराना है और यह भारत के प्राचीन वेदों में वर्णित है। इसके प्रमुख ग्रंथ हैं चरक संहिता, सुश्रुत संहिता और वाग्भट की अष्टांग हृदय. आयुर्वेद की प्रणाली को प्राचीन ऋषियों द्वारा विकसित किया गया था, जिन्होंने मानव शरीर की संरचना और कार्यप्रणाली को समझा और विभिन्न औषधीय पौधों और उनके लाभों का दस्तावेजीकरण किया.
सिद्धांत और सिद्धांत
आयुर्वेद के सिद्धांत त्रिदोषों पर आधारित हैं: वात, पित्त और कफ। ये तीनों शरीर की विभिन्न शक्तियों को संतुलित करते हैं, और जब इनमें से कोई एक दोष असंतुलित हो जाता है, तो यह बीमारी का कारण बन सकता है1. इसलिए, आयुर्वेद में रोगों के इलाज के लिए औषधियाँ, आहार, जीवनशैली, और योग का भी महत्व है.
उपचार विधियाँ
आयुर्वेद में उपचार की कई विधियाँ शामिल हैं जैसे:
आहार: आयुर्वेद के अनुसार खाना ही औषधि है। सही आहार के माध्यम से अनेक बीमारियों का इलाज किया जा सकता है.
योग एवं प्राणायाम: मानसिक स्वास्थ्य और शरीर के संतुलन को बनाए रखने के लिए नियमित योगाभ्यास और प्राणायाम महत्वपूर्ण हैं.
पंचकर्म: यह एक शोधन प्रक्रिया है, जिसमें शरीर से विषाक्त पदार्थों को निकालने के लिए विभिन्न विधियाँ शामिल की जाती हैं.
जड़ी-बूटियाँ: आयुर्वेदिक औषधियों में प्राकृतिक जड़ी-बूटियों का प्रयोग होता है, जो साधारणतः कम दुष्प्रभाव डालती हैं.
महत्व और लाभ
आयुर्वेद का प्रमुख लाभ यह है कि यह रोगों का इलाज कर रोग की जड़ तक पहुँचता है, जिससे वह पुनः नहीं लौटता. यह एक समग्र दृष्टिकोण प्रदान करता है जो स्वास्थ्य के सभी पहलुओं को समाहित करता है और व्यक्ति को हर दृष्टि से स्वस्थ रखने का प्रयास करता है.
आयुर्वेद का यह समग्र दृष्टिकोण और इसकी वैज्ञानिकता आजकल की भागदौड़ भरी जिंदगी में अत्यधिक महत्वपूर्ण है, जहाँ लोग स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान दे रहे हैं और प्राकृतिक उपचारों की ओर रुख कर रहे हैं.
आयुर्वेद की परंपरा में अष्टांग आयुर्वेद के तहत कुल मिलाकर आठ प्रमुख अंग या शाखाएँ शामिल हैं। ये अंग हमारे स्वास्थ्य के विभिन्न पहलुओं को संपूर्णता में समझने और उनका उपचार करने में मदद करते हैं। यहाँ पर इन आठ अंगों का विस्तृत वर्णन किया गया है:
काय चिकित्सा - यह आंतरिक चिकित्सा का क्षेत्र है, जिसे अक्सर सामान्य चिकित्सापद्धति माना जाता है। इसमें रोगों का निदान और उपचार किया जाता है जो शरीर के विभिन्न अंगों और प्रणालियों से संबंधित होते हैं। इसकी विशेषता है पाचन अग्नि, जो शरीर के समस्त क्रियाकलापों का नियंत्रण करती है.
बाल चिकित्सा  - यह क्षेत्र गर्भावस्था से लेकर शिशु के जन्म और उसकी देखभाल तक के पहलुओं का ध्यान रखता है। इसमें प्रसव के दौरान दाइयों से लेकर शिशु की स्वास्थ्य समस्याओं का उपचार किया जाता है.
भूतविद्या  - इसे मनोचिकित्सा भी कहा जाता है। इसे मानसिक रोगों और पिशाच संबंधित बीमारियों के उपचार के लिए जिम्मेदार माना जाता है। यहां पर मानसिक संतुलन बनाए रखने से संबंधित तकनीकें और उपाय अध्यन्न किए जाते हैं.
शल्य चिकित्सा  - यह शल्यक्रिया से सबंधित है और इसमें घावों, चोटों और अन्य सर्जिकल प्रक्रियाओं का उपचार किया जाता है। इसे प्राचीन भारत में सर्जरी की कला के रूप में भी माना जाता है.
शालाक्य तंत्र  - यह कान, नाक, गले और आंखों जैसी अंगों का विशेष क्षेत्र है। इसमें शलाकाओं (उपकरणों) का उपयोग करके उपचार किया जाता है.
अगद तंत्र - यह विष विज्ञान का क्षेत्र है जो भिन्न प्रकार के विषों के प्रभाव और उनके उपचार पर केंद्रित है। यहाँ विषों के चिकित्सीय उपयोग की विधियाँ दी गई हैं.
रसायन तंत्र - इसे पुनर्जनन चिकित्सा के रूप में जाना जाता है। इसमें उम्र बढ़ने से जुड़ी समस्याओं का उपचार  और युवा दिखने के उपायों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है.
वाजीकरण तंत्र  - यह प्रजनन से जुड़ी समस्याओं का उपचार करता है, जैसे नपुंसकता और अन्य यौन स्वास्थ्य समस्याएँ.
इन आठ अंगों के माध्यम से आयुर्वेद समग्र स्वास्थ्य का ध्यान रखता है और अलग-अलग चिकित्सा पद्धतियों के माध्यम से स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का समाधान करता है। इन शाखाओं का समुचित अध्ययन और अभ्यास आयुर्वेद वेलनेस के क्षेत्र में महत्वपूर्ण हैं।आयुर्वेद अथर्ववेद का ही एक अंग है। वेद समरस ज्ञान के भंडार हैं। ईश्वर ने मूल रूप से मनुष्य के लिए सभी प्रकार के ज्ञान एवं विज्ञान इसमें सन्निहित कर दिये हैं। वेदों को अपौरुषेय माना गया है। यह कोई अन्धविश्वास की बात नहीं है, जो असंख्यों ग्रहों एवं उपग्रहों की रचना कर सकता है, पंच तत्वों को बना सकता है, वह प्राणि मात्र के लिए ज्ञान के भंडार के रूप में वेदों की भी रचना कर सकता है।
आज हम विकृत भौतिकवाद अर्थात् प्रदूषण पैदा करने वाले छोटे मोटे आविष्कार करके सौ वर्षों में ही इतने अहंकृत हो उठे हैं कि उपरोक्त कही गयी बातों की खिल्ली उड़ाने में किंचित मात्र भी संकोच नहीं करते।
जैसा कि वैदिक मंत्र है
'जीवेम् शरदः शतं प्रब्रवाम् शरदः शतम्।' वगैरह ।' 
अर्थात् पूर्णतया क्रियाशील रहते हुए हम संसार में सौ वर्ष तक जियें, सौ वर्ष तक बोलें, सौ वर्ष तक सुनें तथा सौ वर्ष तक देखें। इसका अर्थ यह है कि हमारी इन्द्रियाँ और क्रियाएं पूर्णतः स्वस्थ रहते हुए अपना कार्य कर सकती हैं।
उपरोक्त उद्देश्य की पूर्ति हेतु भी आयुर्वेद की रचना हुई है। आयुर्वेद का उद्देश्य मात्र औषधियों का प्रयोग करके स्वास्थ्य लाभ कराना ही नहीं है अपितु संकुचित अर्थ में योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा भी आयुर्वेद के अन्तर्गत आती है। प्रकृति के सानिध्य में स्वछन्द विचरण करने वाले पशु पक्षी एवं वनस्पतियाँ निरोग रहकर अपनी स्वाभाविक एवं निश्चित आयु प्राप्त करती रही है किन्तु मनुष्य ने विकृत भौतिकवाद का प्रयोग करके एवं प्रकृत्ति के साथ अवांछित छेड़छाड़ करके अपने जीवन को तो तबाह कर ही लिया है उनके जीवन को भी नारकीय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
इस दूषित पर्यावरण में भी, हम जिस डाल पर बैठे हैं, उसी को काट रहे हैं। जल, वायु एवं अन्न जिन पर हमारा जीवन निर्भर करता है, उन्हीं को निरन्तर दूषित किये जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में आयुर्वेद के ज्ञान का महत्व बहुत अधिक बढ़ गया है। आयुर्वेद विज्ञान हमारी शारीरिक संरचना के रहस्य को जानने वाला एक अद्‌भुत एवं विलक्षण विज्ञान है। हमारा शरीर मूल रूप से वात, पित्त एवं कफ तथा विभिन धातुएं जैसे- रक्त, वीर्य, मूत्र, विष्ठा इत्यादि की संतुलित व्यवस्था से ही संचालित हो रहा है। इनको संतुलित रखना ही आयुर्वेद का उद्देश्य है। उपरोक्त वात, पित्त, कफ इत्यादि तत्वों में वात अर्थात् वायु तत्व सर्वप्रमुख है यही इन सभी तत्वों को शरीर में व्यवस्थित रखता है। यहीं पर आयुर्वेद में योग का महत्व दृष्टिगत होता है। वायु को योग के द्वारा वश में किया जा सकता है एवं विभिन्न औषधियां भी वात दोष को दूर करती है। जैसे कहा भी गया है-
पित्तः पंगु, कफः, पंगुः पंगवः सर्व धातवः ।
वायुना यत्र नीयन्ते तत्र धावन्ति मेघवत् ।।
अर्थात् पित्त, कफ एवं सभी धातुएं लंगड़ी हैं केवल वायु तत्व ही शरीर में इन सब तत्वों को जहां चाहता है ले जाता है ठीक उसी प्रकार जैसे आकाश में बादलों को वायु जहां चाहती है ले जाती हैं। इसीलिए वायु पर वश करके ही शरीर को स्वस्थ रखा जा सकता है। इसी को योगाभ्यास कहा जाता है।
शरीर एक यंत्र है। जिस तरह से किसी भी मशीन को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए सर्विसिंग की आवश्यकता होती है उसी तरह शरीर को भी शुद्ध करते रहना चाहिए तभी हम रोगों से मुक्त रह सकेंगे। आयुर्वेद में प्राकृतिक चिकित्सा के अन्तर्गत पंचकर्म विधियों के द्वारा यही शरीर शोधन कार्य किया जाता है। सुश्रुत एवं चरक संहिता के स्वस्थ वृत्त अध्यायों में जो-जो विधिदां वर्णित हैं वे सब प्राकृतिक चिकित्सा के अन्तर्गत आती हैं। यदि मनुष्य अपने जीवन को उन्हीं के अनुसार चलाये तो औषधियों की आवश्यकता ही न रहे।
हमारे यहां की विभिन्न सब्जियां, फल, अन्न, दुग्ध, मसाले इत्यादि विभिन्न रोगों को ठीक करने के लिए महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। हमें उन सबके गुण एवं धर्मों व कार्यों को समझने की आवश्यकता है। मानसिक दासता एवं समुचित आयुर्वेद के ज्ञान का अभाव होने के कारण आज हम चलती फिरती लाशों के रूप में भटक रहे हैं। दशा यह है कि नियमित रूप से एलोपैथिक दवा रूपी नशे के हम अभ्यस्त हो गये हैं। आज समय की पुकार है कि हम अपने ऋषियों के ग्रंथों को समझने का कष्ट करें जिनमें हमारी सभी समस्याओं का निदान है।
सुरेश चंद्र मिश्र 'विमुक्त'
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