- "डोमिनस लिटिस" एक लैटिन शब्द है, जिसका अर्थ "मुकदमे का स्वामी"
- व्यक्तियों को संदर्भित करता है जो मुकदमे का नियंत्रण रखते हैं।
- संहिता 1908 (CPC) के आदेश 1 नियम 10 अदालत को पक्षकारों को जोड़ने या हटाने का अधिकार
- डोमिनस लिटिस का मुख्य उद्देश्य उचित और प्रभावी समाधान में सभी आवश्यक पक्षकार शामिल हों
- न्यायालय को वादी की इच्छाओं के विरुद्ध आवश्यक पक्षकारों को जोड़ सकता है
-वादी को अवांछित पक्षकार के खिलाफ मुकदमा करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।
कानपुर : 10 अगस्त 2025:"डोमिनस लिटिस" एक लैटिन शब्द है, जिसका अर्थ है "मुकदमे का मास्टर" या "वाद का स्वामी"। यह सिद्धांत उन व्यक्तियों को संदर्भित करता है जो किसी मुकदमे का नियंत्रण रखते हैं और जिनकी इसमें वास्तविक रुचि होती है। यह सिद्धांत सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश 1, नियम 10 के तहत स्थापित किया गया है, जिसमें अदालत को पक्षकारों को जोड़ने या हटाने के लिए व्यापक विवेकाधिकार दिया गया है।
डोमिनस लिटिस का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि मुकदमे में सभी आवश्यक पक्षकार शामिल हों, ताकि न्यायालय मामले का उचित और प्रभावी समाधान कर सके। सिद्धांत के अनुसार वादी को ऐसे किसी व्यक्ति के खिलाफ मुकदमा करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता जिसका वह चाहकर भी मुकदमा नहीं करना चाहता।
डोमिनस लिटिस का सिद्धांत तब लागू होता है जब एक व्यक्ति मूल पक्षकार नहीं होते हुए भी मुकदमे में हस्तक्षेप करता है और एक पक्ष के रूप में पूरी तरह से नियंत्रण और जिम्मेदारी ले लेता है। इससे यह सिद्धांत उन मामलों में महत्वपूर्ण हो जाता है जहाँ यह स्पष्ट नहीं होता कि कौन सी पार्टी को वास्तव में मुकदमे में शामिल होना चाहिए।
न्यायालय के पास आदेश 1, नियम 10(2) के तहत यह अधिकार है कि वह किसी भी समय आवश्यक पक्षों को मुकदमे में जोड़ सकता है, यहाँ तक कि वादी की इच्छाओं के विरुद्ध भी। न्यायालय को यह सुनिश्चित करना होता है कि सभी आवश्यक पक्षों की उपस्थिति में ही मुकदमे का अंतिम निर्णय प्रभावी हो।
डोमिनस लिटिस का सिद्धांत सिविल प्रक्रिया के अंतर्गत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह वादी की स्वतंत्रता और न्यायपालिका की विवेकाधीनता के बीच संतुलन स्थापित करता है। इस सिद्धांत का सही उपयोग सुनिश्चित करता है कि न्यायालय में सभी आवश्यक पक्षकार उपस्थित हों, जिससे विवादों का न्यायसंगत समाधान हो सके。
"डोमिनस लिटिस" लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है "मुकदमे का स्वामी"। यह सिद्धांत सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश 1, नियम 10 के तहत काम करता है, और यह सुनिश्चित करता है कि मुकदमे में सभी आवश्यक पक्षकार शामिल हों ताकि न्यायिक प्रक्रिया प्रभावी और उचित हो सके।
मुख्य रूप से यह सिद्धांत वादी को किसी ऐसे व्यक्ति के खिलाफ मुकदमा करने के लिए मजबूर नहीं करता जिसे वह शामिल करना नहीं चाहता। यदि कोई तीसरा व्यक्ति मुकदमे में हस्तक्षेप करता है और पक्षकार बन जाता है, तो अदालत उसकी रुचि और मामले में उसकी भूमिका के आधार पर उसके शामिल होने की अनुमति दे सकती है। न्यायालय को विवाद का संपूर्ण समाधान सुनिश्चित करने के लिए, आवश्यक पक्षकारों को स्वयं वादी की इच्छाओं के विरुद्ध भी शामिल करने का अधिकार है।
वादी को "डोमिनस लिटिस" के रूप में मुकदमेबाज़ी में नियंत्रण रखने का अधिकार होता है, लेकिन यह अधिकार पूर्ण नहीं है। न्यायालय, अपने विवेक से, पक्षकारों को जोड़ या हटा सकता है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि सभी संबंधित पक्ष उपस्थित रहें, न्यायालय इस बात पर विचार करेगा कि किस पक्षकार का मामला स्वीकार करना उचित है, और उनके शामिल होने की वजह से मामले का उचित समाधान कैसे प्रभावित होगा।
यह सिद्धांत वादी की स्वतंत्रता और न्यायालय के विवेकाधीन अधिकारों के बीच संतुलन स्थापित करता है। विशिष्ट उदाहरणों में, जैसे विशिष्ट प्रदर्शन वाद या विभाजन वाद में, डोमिनस लिटिस के सिद्धांत की प्रयोज्यता अलग-अलग होती है। न्यायालय निष्पादन की प्रक्रियाओं में भी इस सिद्धांत को अलग तरह से लागू करता है। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सिद्धांत विभिन्न प्रकार के मुकदमों और परिस्थितियों में न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करता है।डोमिनस लिटिस का सिद्धांत वादी को वाद के पक्षकार का चयन करने का अधिकार प्रदान करता है, फिर भी यह अधिकार नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश 1, नियम 10 के अधीन पूर्ण नहीं है।
न्यायालय अपने विवेक से पक्षकारों को जोड़/हटा सकता है, यह सुनिश्चित करते हुए कि व्यापक समाधान के लिये सभी आवश्यक पक्षकार मौजूद हैं।
न्यायालय पक्षकारों के प्रत्यक्ष हित और विवाद को सुलझाने में उनके योगदान का आकलन करता है, परिस्थितियों के आधार पर दावों को स्वीकार या अस्वीकार करने का विवेक बरकरार रखता है; किसी को भी पक्षकार बनाये जाने का स्वत: अधिकार नहीं है।
डोमिनस लिटिस सिद्धांत का उद्देश्य:"डोमिनस लिटिस" उस व्यक्ति को संदर्भित करता है, जो वैधानिक मुकदमे का मालिक या नियंत्रणकर्त्ता होता है और इसके परिणाम में वास्तविक रुचि रखता है।इस व्यक्ति को अनुकूल निर्णय से लाभ होगा या प्रतिकूल निर्णय के परिणाम भुगतने होंगे।
यह सिद्धांत किसी ऐसे व्यक्ति पर लागू होता है, जो मूल पक्षकार न होते हुए भी हस्तक्षेप करता है और मामले के एक पक्षकार पर नियंत्रण रखता है, जिसे न्यायालय द्वारा उत्तरदायी पक्षकार माना जाता है।
CPC के आदेश 1, नियम 10 के तहत न्यायालय की शक्ति पक्षकारों को जोड़ने/बदलने के लिये सक्षम बनाता है, वह इस बात पर ज़ोर देता है कि वादी, "डोमिनस लिटिस" के रूप में, को किसी अवांछित पक्षकार के विरुद्ध मुकदमा करने के लिये मजबूर नहीं किया जा सकता है।
हालाँकि, व्यापक समाधान सुनिश्चित करने के लिये, न्यायालय औपचारिक आवेदन के बिना भी आवश्यक पक्षकारों को शामिल करने का आदेश दे सकता है।
डोमिनस लिटिस के सिद्धांत का अनुप्रयोग सतर्क रूप से होना चाहिये, और आदेश 1, नियम 10(2) CPC के तहत पक्षकारों को जोड़ने/बदलने का न्यायालय का अधिकार व्यापक है।
डोमिनस लिटिस के सिद्धांत की प्रयोज्यता और गैर-प्रयोज्यता क्या है?प्रयोज्यता:धारा 92 CPC, कार्यवाही:न्यायालय के पास किसी भी अन्य मुकदमे की तरह, CPC की धारा 92 के तहत किसी मुकदमे में एक पक्षकार को प्रतिवादी के रूप में शामिल करने का अधिकार है।
मुकदमा करने का अधिकार आदेश 1, नियम 10 CPC द्वारा प्रशासित है।
विशिष्ट प्रदर्शन वाद:विक्रय अनुबंध के लिये विशिष्ट वाद आरंभ करने वाले वादी को डोमिनस लिटिस माना जाता है और उन पक्षकारों को शामिल करने के लिये मजबूर नहीं किया जा सकता है, जिनके विरुद्ध वे मुकदमा नहीं करना चाहते हैं, जब तक कि वैधानिक आवश्यकताओं से मजबूर न किया जाए।
गैर प्रयोज्यता:विभाजन वाद (Partition Suit):विभाजन वाद में, डोमिनस लिटिस के सिद्धांत का कड़ाई से उपयोजन लागू नहीं होता है क्योंकि वादी और प्रतिवादी दोनों इसमें भागीदार होते हैं।
निष्पादन याचिका:चांगंती लखमी राज्यम एवं अन्य बनाम कोल्ला रामा राव (1998) के मामले में यह माना गया है कि आदेश 1 नियम 10 CPC मुकदमों और अपीलों के लिये प्रासंगिक है, लेकिन निष्पादन की कार्यवाही पर लागू नहीं होता है।
कार्रवाई के कारण:सिविल मामलों में, वादी को प्रायः डोमिनस लिटिस माना जाता है क्योंकि वे कथित क्षति या चोट के निवारण या मुआवज़े की मांग करने वाले पक्षकार हैं।
CPC के आदेश 1 नियम 10(2) के अनुसार, अनुतोष प्रदान करना विवेकाधीन है और न्यायालय किसी तीसरे पक्षकार को प्रतिवादी के रूप में जोड़ने से पहले वादी की प्राथमिकताओं पर विचार करता है।हालाँकि, यदि न्यायालय विवाद के संपूर्ण समाधान के लिये इसे आवश्यक समझता है, तो वह पक्षकार को वादी की सहमति के बिना भी प्रतिवादी के रूप में जोड़ सकता है।
यह इस सिद्धांत कि पुष्टि करता है कि वैधानिक कार्रवाई आरंभ करने वाले पक्षकार की मुकदमेबाज़ी की प्रक्रिया को आकार देने, कानूनी प्रणाली के भीतर विवादों के निष्पक्ष और कुशल समाधान को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिये।
सीमित प्रयोज्यता:मोहनकुमारन नायर बनाम विजयकुमारन नायर (2008) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि डोमिनस लिटिस के सिद्धांत का अनुप्रयोग CPC की धारा 15 से 18 के अंतर्गत आने वाले कार्रवाई के कारणों तक सीमित है।
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